रामानन्द शर्मा की कलम से

*शब्द की महिमा*

महाभारत काल में पांडव लोगों ने ऐसा महल बनवाया था ।जो सूखी जगह थी वह पानी की तरह झिलमिल झिलमिल लग रहा था। और जो पानी था वह सुखा लग रहा था। वहां पर उनके वहां गृह प्रवेश का उत्सव था । उस समय घर परिवार रिश्तेदार सभी लोग एक जगह पर एकत्र थे । उस समय दुर्योधन भी मौजूद थे जब वह आंगन में चलने लगे तो जहां सूखी जगह थी वहां पानी की तरह लग रहा था । तो उन्होंने अपनी धोती को ऊपर समेटने लगे द्रोपति यह दृश्य देख रही थी । यह दृश्य देखकर द्रोपति से रहा नहीं गया वह हंसी के स्वर में ताना देते हुए यह शब्द कहीं की अंधे के अंधे ही होते हैं। यह शब्द सुनकर दुर्योधन बहुत दुखी हुए लज्जित हुए । उन्होंने इसका बदला लेने की मन में ठान ली है और वक्त आने पर वस्त्र हरण की ठान ली बाद में जो कुछ हुआ वह सब विवादित ही है। महाभारत में काफी जन धन की हानि हुई इस दृष्टांत के साथ ही दूसरी घटना का विवरण दिया जा रहा है श्री तुलसीदास जी कामवासना के वासी अपने ससुराल घोर बारिश व आधी अधियारी रात में पहुंचे तो उनकी धर्मपत्नी माता रत्नावली जी ने यह शब्द कहें कि तुम इतने उतावले हो गए ऐसे कठिन समय में यहां आ पहुंचे तुमको धिक्कार है । इस हाड़ मास के शरीर पर इतने होश खो बैठे ऐसी लगन परमात्मा से लगाते तो भवसागर पार हो जाते इतना सुन जैसे कोई सोते समय किसी को जगा दें। उन्होंने मन में ठान लिया और रामचरितमानस लिख डाला वह सफल हुए। इस रामचरितमानस को पढकर लोग जीवन सफल करते हैं ।

रामानन्द शर्मा

लेखक – रामानन्द शर्मा
उम्र – 85 वर्ष
पता – राजधानी झंगहा गोरखपुर

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